जब अमिताभ बच्चन फ़िल्मों में आए तो बांग्लादेश पूर्वी पाकिस्तान था, बीटल्स में फूट नहीं पड़ी थी, हॉकी अभी भी भारत का सबसे लोकप्रिय खेल था, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में अभी तक विभाजन नहीं हुआ था, राजधानी एक्सप्रेस को चलते अभी एक साल भी नहीं बीता था और इंसान ने अभी अभी चाँद पर क़दम रखा था.
उन दिनों ख़्वाजा अहमद अब्बास फ़िल्म 'सात हिंदुस्तानी' के लिए अभिनेताओं की तलाश में थे.
एक दिन ख़्वाजा अहमद अब्बास के सामने कोई एक लंबे युवा व्यक्ति की तस्वीर ले कर आया. अब्बास ने कहा, "मुझे इससे मिलवाइए".
तीसरे दिन शाम के ठीक छह बजे एक शख़्स उनके कमरे में दाख़िल हुआ. वो कुछ ज़्यादा ही लंबा लग रहा था, क्योंकि उसने चूड़ीदार पायजामा और नेहरू जैकेट पहनी हुई थी.
इमेज कॉपीरइटPRADEEP CHANDRA/VIKAS CHANDRA SINHA'S BOOK
"हमारे साथ ये दिक्क़त नहीं है, क्योंकि हमारी फ़िल्म में कोई हीरोइन है ही नहीं. और अगर होती भी, तब भी मैं तुम्हें अपनी फ़िल्म में ले लेता."
"क्या मुझे आप अपनी फ़िल्म में ले रहे हैं? और वो भी बिना किसी टेस्ट के?"
"वो कई चीज़ों पर निर्भर करता है. पहले मैं तुम्हें कहानी सुनाऊंगा. फिर तुम्हारा रोल बताऊंगा. अगर तुम्हें ये पसंद आएगा, तब मैं तुम्हें बताऊंगा कि मैं तुम्हें कितने पैसे दे सकूंगा."
इसके बाद अब्बास ने कहा कि पूरी फ़िल्म के लिए उसे सिर्फ़ पांच हज़ार रुपए मिलेंगे. वो थोड़ा झिझका, इसलिए अब्बास ने उससे पूछा, "क्या तुम इससे ज़्यादा कमा रहे हो?"
उसने जवाब दिया, "जी हाँ. मुझे कलकत्ता की एक फ़र्म में सोलह सौ रुपए मिल रहे थे. मैं वहाँ से इस्तीफ़ा दे कर यहाँ आया हूँ."
अब्बास आश्चर्यचकित रह गए और बोले, "तुम कहना चाह रहे हो कि इस फ़िल्म को पाने की उम्मीद में तुम अपनी सोलह सौ रुपए महीने की नौकरी छोड़ कर यहाँ आए हो? अगर मैं तुम्हें ये रोल ना दूँ तो?"
उस लंबे व्यक्ति ने कहा, "जीवन में इस तरह के 'चांस' तो लेने ही पड़ते हैं."
अब्बास ने वो रोल उसको दे दिया और अपने सचिव अब्दुल रहमान को बुला कर कॉन्ट्रैक्ट 'डिक्टेट' करने लगे. उन्होंने उस शख़्स से इस बार उसका पूरा नाम और पता पूछा.
"रुको." अब्बास चिल्लाए. "इस कॉन्ट्रैक्ट पर तब तक दस्तख़्त नहीं हो सकते, जब तक मुझे तुम्हारे पिता की इजाज़त नहीं मिल जाती. वो मेरे जानने वाले हैं और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड कमिटी में मेरे साथी हैं. तुम्हें दो दिनों तक और इंतज़ार करना होगा."
इस तरह ख़्वाजा अहमद अब्बास ने कॉन्ट्रैक्ट की जगह डॉक्टर बच्चन के लिए एक टेलिग्राम डिक्टेट किया और पूछा, "क्या आप अपने बेटे को अभिनेता बनाने के लिए राज़ी हैं?"
सात हिंदुस्तानी कुछ ख़ास चली नहीं. उसके बाद ऋषिकेश मुखर्जी ने उन्हें अपनी फ़िल्म 'आनंद' में एक रोल दिया. इस फ़िल्म में पहली बार पूरे भारत की नज़र अमिताभ के अभिनय पर गई और उन्हें 1972 में फ़िल्मफ़ेयर का सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार मिला.
कुछ साल पहले अनुपमा चोपड़ा की एक किताब आई थी '100 फ़िल्म्स टू सी बिफ़ोर यू डाई'. इस किताब में 'आनंद' फ़िल्म को भी जगह मिली थी. इस फ़िल्म के क्लाइमेक्स में राजेश खन्ना मर जाते हैं और अमिताभ बच्चन उन्हें झिंझोड़ रहे हैं.
राजेश खन्ना की जीवनी 'अनटोल्ड स्टोरी ऑफ़ इंडियाज़ फ़र्स्ट सुपर स्टार' लिखने वाले यासेर उस्मान बताते हैं, 'उस सीन की शूटिंग से पहले अमिताभ बच्चन परेशान थे कि वो इसे कैसे शूट करेंगे. उन्हें अभी अभिनय का इतना अनुभव नहीं था. राजेश खन्ना 'हिस्ट्रियोनिक्स' के बादशाह थे. वो अपने दोस्त महमूद के पास गए. महमूद ने बस एक लाइन कही तुम बस ये सोचो कि राजेश खन्ना वाक़ई मर गए हैं. इसके अलावा कुछ सोचने की ज़रूरत नहीं है. वो सीन अपने-आप हो जाएगा.'
उन दिनों ख़्वाजा अहमद अब्बास फ़िल्म 'सात हिंदुस्तानी' के लिए अभिनेताओं की तलाश में थे.
एक दिन ख़्वाजा अहमद अब्बास के सामने कोई एक लंबे युवा व्यक्ति की तस्वीर ले कर आया. अब्बास ने कहा, "मुझे इससे मिलवाइए".
तीसरे दिन शाम के ठीक छह बजे एक शख़्स उनके कमरे में दाख़िल हुआ. वो कुछ ज़्यादा ही लंबा लग रहा था, क्योंकि उसने चूड़ीदार पायजामा और नेहरू जैकेट पहनी हुई थी.
इमेज कॉपीरइटPRADEEP CHANDRA/VIKAS CHANDRA SINHA'S BOOK
"हमारे साथ ये दिक्क़त नहीं है, क्योंकि हमारी फ़िल्म में कोई हीरोइन है ही नहीं. और अगर होती भी, तब भी मैं तुम्हें अपनी फ़िल्म में ले लेता."
"क्या मुझे आप अपनी फ़िल्म में ले रहे हैं? और वो भी बिना किसी टेस्ट के?"
"वो कई चीज़ों पर निर्भर करता है. पहले मैं तुम्हें कहानी सुनाऊंगा. फिर तुम्हारा रोल बताऊंगा. अगर तुम्हें ये पसंद आएगा, तब मैं तुम्हें बताऊंगा कि मैं तुम्हें कितने पैसे दे सकूंगा."
इसके बाद अब्बास ने कहा कि पूरी फ़िल्म के लिए उसे सिर्फ़ पांच हज़ार रुपए मिलेंगे. वो थोड़ा झिझका, इसलिए अब्बास ने उससे पूछा, "क्या तुम इससे ज़्यादा कमा रहे हो?"
उसने जवाब दिया, "जी हाँ. मुझे कलकत्ता की एक फ़र्म में सोलह सौ रुपए मिल रहे थे. मैं वहाँ से इस्तीफ़ा दे कर यहाँ आया हूँ."
अब्बास आश्चर्यचकित रह गए और बोले, "तुम कहना चाह रहे हो कि इस फ़िल्म को पाने की उम्मीद में तुम अपनी सोलह सौ रुपए महीने की नौकरी छोड़ कर यहाँ आए हो? अगर मैं तुम्हें ये रोल ना दूँ तो?"
उस लंबे व्यक्ति ने कहा, "जीवन में इस तरह के 'चांस' तो लेने ही पड़ते हैं."
अब्बास ने वो रोल उसको दे दिया और अपने सचिव अब्दुल रहमान को बुला कर कॉन्ट्रैक्ट 'डिक्टेट' करने लगे. उन्होंने उस शख़्स से इस बार उसका पूरा नाम और पता पूछा.
"रुको." अब्बास चिल्लाए. "इस कॉन्ट्रैक्ट पर तब तक दस्तख़्त नहीं हो सकते, जब तक मुझे तुम्हारे पिता की इजाज़त नहीं मिल जाती. वो मेरे जानने वाले हैं और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड कमिटी में मेरे साथी हैं. तुम्हें दो दिनों तक और इंतज़ार करना होगा."
इस तरह ख़्वाजा अहमद अब्बास ने कॉन्ट्रैक्ट की जगह डॉक्टर बच्चन के लिए एक टेलिग्राम डिक्टेट किया और पूछा, "क्या आप अपने बेटे को अभिनेता बनाने के लिए राज़ी हैं?"
सात हिंदुस्तानी कुछ ख़ास चली नहीं. उसके बाद ऋषिकेश मुखर्जी ने उन्हें अपनी फ़िल्म 'आनंद' में एक रोल दिया. इस फ़िल्म में पहली बार पूरे भारत की नज़र अमिताभ के अभिनय पर गई और उन्हें 1972 में फ़िल्मफ़ेयर का सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार मिला.
कुछ साल पहले अनुपमा चोपड़ा की एक किताब आई थी '100 फ़िल्म्स टू सी बिफ़ोर यू डाई'. इस किताब में 'आनंद' फ़िल्म को भी जगह मिली थी. इस फ़िल्म के क्लाइमेक्स में राजेश खन्ना मर जाते हैं और अमिताभ बच्चन उन्हें झिंझोड़ रहे हैं.
राजेश खन्ना की जीवनी 'अनटोल्ड स्टोरी ऑफ़ इंडियाज़ फ़र्स्ट सुपर स्टार' लिखने वाले यासेर उस्मान बताते हैं, 'उस सीन की शूटिंग से पहले अमिताभ बच्चन परेशान थे कि वो इसे कैसे शूट करेंगे. उन्हें अभी अभिनय का इतना अनुभव नहीं था. राजेश खन्ना 'हिस्ट्रियोनिक्स' के बादशाह थे. वो अपने दोस्त महमूद के पास गए. महमूद ने बस एक लाइन कही तुम बस ये सोचो कि राजेश खन्ना वाक़ई मर गए हैं. इसके अलावा कुछ सोचने की ज़रूरत नहीं है. वो सीन अपने-आप हो जाएगा.'
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