ये उस रण की कहानी है जिसके रणनायक तानाजी ने बहादुरी के साथ लड़ते हुए सिंहगढ़ का क़िला तो जीत लिया था लेकिन ये करते करते उनकी मौत हो गई.
जब शिवाजी को अपने योद्धा की मौत के बारे में पता चला तो उन्होंने कहा - 'गढ़ आला, पन सिंह गेला' यानी किला तो जीत लिया लेकिन अपना शेर खो दिया.
ये कहानी उस दौर से शुरू होती है जब सिंहगढ़ का नाम कोंधाना हुआ करता था. लगभग साढ़े सात सौ मीटर की ऊंचाई पर बने किले पर एक राजपूत कमांडर उदयभान का राज हुआ करता था.
शिवाजी इस क़िले को वापस जीतना चाहते थे. और इसके लिए उन्होंने तानाजी को ज़िम्मेदारी दी. और तानाजी शिवाजी का आदेश पाकर अपने सैनिकों के साथ वहां पहुंच गए. तानाजी ने इस लड़ाई के लिए रात का वक़्त चुना.
उस रात को तानाजी अपने सैनिकों के साथ क़िले के नीचे इकट्ठे हुए. क़िले की दीवारें इतनी ऊंची थीं कि उन पर आसानी से चढ़ना मुमकिन नहीं था. चढ़ाई बिलकुल सीधी थी.
जब कुछ न सूझा तो तानाजी ने अपने चार-पाँच बहादुर सैनिकों के साथ ऊपर चढ़ना शुरू किया. धीरे-धीरे ऊपर चढ़ते हुए तानाजी क़िले के पास तक पहुंच गए. इसके बाद उन्होंने अपने साथ लाई रस्सी को एक पेड़ में बांधा और नीचे डाल दिया. इसके बाद दूसरे सैनिक भी ऊपर क़िले तक पहुंच सके.
सिंहगढ़ के युद्ध नाम से मशहूर इस जंग का किस्सा महाराष्ट्र सरकार की संस्था बाल भारती द्वारा प्रकाशित कक्षा चार की किताब में प्रकाशित है.
लेकिन अब तानाजी की बहादुरी और इस जंग पर एक फ़िल्म बन रही है जिसमें अजय देवगन तानाजी की भूमिका में नज़र आएंगे.
कहा जाता है कि जब शिवाजी की ओर से इस क़िले को फ़तह करने का आदेश मिला तब तानाजी अपने बेटे की शादी में व्यस्त थे. लेकिन ये आदेश पाते ही तानाजी ने कहा कि अब पहले क़िला लेंगे तब शादी की बात होगी.
दिल्ली यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ाने वाले प्रोफेसर अनिरुद्ध देशपांडे इस जंग के पीछे की कहानी बताती हैं.
वे कहते हैं, "ये क़िला 1665 में मुगल साम्राज्य और शिवा जी के बीच हुई पुरंदर संधि के तहत औरंगजेब को मिल गए थे. इसके साथ ही इसके जैसे 23 दूसरे क़िले भी मुगलों को मिल गए थे."
1665 की संधि के बाद शिवाजी औरंगजेब से मिलने आगरा गए. लेकिन जब उन्हें वहां बंदी बना लिया गया तो शिवाजी किसी तरह आगरा से भागकर महाराष्ट्र पहुंचे और उन्होंने पुंरदर संधि को अस्वीकार कर दिया और अपने सभी 23 क़िलों को वापिस हासिल करने की प्रक्रिया शुरू कर दी."
देशपांडे बताती हैं, "रणनीतिक रूप से यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण क़िला था. उस समय उदयभान राठौड़ नाम के एक राजपूत सेनापति प्रमुख किले की रखवाली कर रहे थे. और तानाजी मालुसरे के साथ उनके भाई सूर्या मालुसरे भी थे."
पुणे शहर से 20 किमी दक्षिण पश्चिम में हवेली तहसील में स्थित इस क़िले का क्षेत्रफल 70,000 वर्ग किलोमीटर है. क़िले का एक द्वार पुणे की ओर खुलता है तो दूसरा द्वार कल्याण की ओर खुलता है.
बालभारती द्वारा छापी गई किताब में बताया गया है कि जब तानाजी ने किले पर चढ़ाई की तो सूर्या जी अपनी सेना के साथ किले के कल्याण द्वार पर पहुंच गए. और दरवाज़ा खुलने का इंतजार करने लगे.
जब शिवाजी को अपने योद्धा की मौत के बारे में पता चला तो उन्होंने कहा - 'गढ़ आला, पन सिंह गेला' यानी किला तो जीत लिया लेकिन अपना शेर खो दिया.
ये कहानी उस दौर से शुरू होती है जब सिंहगढ़ का नाम कोंधाना हुआ करता था. लगभग साढ़े सात सौ मीटर की ऊंचाई पर बने किले पर एक राजपूत कमांडर उदयभान का राज हुआ करता था.
शिवाजी इस क़िले को वापस जीतना चाहते थे. और इसके लिए उन्होंने तानाजी को ज़िम्मेदारी दी. और तानाजी शिवाजी का आदेश पाकर अपने सैनिकों के साथ वहां पहुंच गए. तानाजी ने इस लड़ाई के लिए रात का वक़्त चुना.
उस रात को तानाजी अपने सैनिकों के साथ क़िले के नीचे इकट्ठे हुए. क़िले की दीवारें इतनी ऊंची थीं कि उन पर आसानी से चढ़ना मुमकिन नहीं था. चढ़ाई बिलकुल सीधी थी.
जब कुछ न सूझा तो तानाजी ने अपने चार-पाँच बहादुर सैनिकों के साथ ऊपर चढ़ना शुरू किया. धीरे-धीरे ऊपर चढ़ते हुए तानाजी क़िले के पास तक पहुंच गए. इसके बाद उन्होंने अपने साथ लाई रस्सी को एक पेड़ में बांधा और नीचे डाल दिया. इसके बाद दूसरे सैनिक भी ऊपर क़िले तक पहुंच सके.
सिंहगढ़ के युद्ध नाम से मशहूर इस जंग का किस्सा महाराष्ट्र सरकार की संस्था बाल भारती द्वारा प्रकाशित कक्षा चार की किताब में प्रकाशित है.
लेकिन अब तानाजी की बहादुरी और इस जंग पर एक फ़िल्म बन रही है जिसमें अजय देवगन तानाजी की भूमिका में नज़र आएंगे.
कहा जाता है कि जब शिवाजी की ओर से इस क़िले को फ़तह करने का आदेश मिला तब तानाजी अपने बेटे की शादी में व्यस्त थे. लेकिन ये आदेश पाते ही तानाजी ने कहा कि अब पहले क़िला लेंगे तब शादी की बात होगी.
दिल्ली यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ाने वाले प्रोफेसर अनिरुद्ध देशपांडे इस जंग के पीछे की कहानी बताती हैं.
वे कहते हैं, "ये क़िला 1665 में मुगल साम्राज्य और शिवा जी के बीच हुई पुरंदर संधि के तहत औरंगजेब को मिल गए थे. इसके साथ ही इसके जैसे 23 दूसरे क़िले भी मुगलों को मिल गए थे."
1665 की संधि के बाद शिवाजी औरंगजेब से मिलने आगरा गए. लेकिन जब उन्हें वहां बंदी बना लिया गया तो शिवाजी किसी तरह आगरा से भागकर महाराष्ट्र पहुंचे और उन्होंने पुंरदर संधि को अस्वीकार कर दिया और अपने सभी 23 क़िलों को वापिस हासिल करने की प्रक्रिया शुरू कर दी."
देशपांडे बताती हैं, "रणनीतिक रूप से यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण क़िला था. उस समय उदयभान राठौड़ नाम के एक राजपूत सेनापति प्रमुख किले की रखवाली कर रहे थे. और तानाजी मालुसरे के साथ उनके भाई सूर्या मालुसरे भी थे."
पुणे शहर से 20 किमी दक्षिण पश्चिम में हवेली तहसील में स्थित इस क़िले का क्षेत्रफल 70,000 वर्ग किलोमीटर है. क़िले का एक द्वार पुणे की ओर खुलता है तो दूसरा द्वार कल्याण की ओर खुलता है.
बालभारती द्वारा छापी गई किताब में बताया गया है कि जब तानाजी ने किले पर चढ़ाई की तो सूर्या जी अपनी सेना के साथ किले के कल्याण द्वार पर पहुंच गए. और दरवाज़ा खुलने का इंतजार करने लगे.
Comments
Post a Comment